Monday 12 June 2023

सीपी सर्कल की किस्सागोई

राजुला के नाम भाग -2

शुक्रवार का दिन था। सुबह लगभग 10 बजे नींद खुली.. लेकिन अलसाहट अब भी बाकी थी। किस्मत भली थी आज वीक ऑफ था। कुछ देर और सोने के बाद लगा अब नींद पूरी हो चुकी है... उठ जाना चाहिए। लेटे हुए ही मोबाइल फोन खोजने के लिए हाथों से बिस्तर टटोला... तो पाया वह सिरहाने के एक कोने पर पड़ा है। ऑन किया... तो देखता हूं... आपकी छह मिस्डकॉल... और तीन मैसेज, सुबह पांच बजे‌ के आए हुए हैं। उससे ठीक एक घंटा पहले ही तो मैं फोन साइलेंट कर सोया था। रिप्लाई करने के बाद पता नहीं क्यों... अंगुलियां फोन की गैलरी की ओर बढ़ गईं। तभी नज़र एक फोटो पर आकर टिक गई। ठीक-ठीक तो याद नहीं पर शायद 2015 की बात रही होगी। मार्च खत्म होने को था और गर्मियां उरूज पर जाने को बेताब.... इत्फ़ाकन उस दिन भी ऑफिस की छुट्टी थी। फोन पर आपसे बात‌ हुई... तो सीपी में डिनर को प्रोग्राम तय हो गया।
हर बार की तरह मैं फिर से लेट था। इस बार भी पूरी भूमिका बनाकर तयशुदा जगह (राजीव चौक मेट्रो स्टेशन) पहुंचा था कि मामला संभालना कैसे है, लेकिन उसका बहुत ज्यादा फ़ायदा होता नहीं था। आपको जो कहना-सुनाना होता, आप एक ही सांस में कह डालते थे। मुझे तल्ख लहज़े वाले आपके चेहरे के भाव अब भी ठीक से याद हैं। आप कहते  - "हमेशा लेट...! कभी टाइम पर तो आना ही नहीं है। आधे- आधे घंटे वेट करवाते हो.. अगली बार अब मिलने के लिए बोलना मत...। " और ना जाने क्या-क्या... उसके बाद भी जो कुछ छूट जाता...उसकी कसर आंखें पूरी कर देती थी। मैं हमेशा की तरह कहता- "यार अगली बार पक्का टाइम पर आऊंगा"... आप डपट कर कहते-" रहने दो... कभी नहीं सुधरोगे आप... अब चलो।" दो चार कदम चलने के बाद आप कुछ ऐसे पेश आते जैसे कुछ हुआ ही न हो.. " अच्छा सुनो ना.. यार जब मैं आ रही थी ना.. पता है क्या हुआ.. और फिर कभी खत्म न होने वाली बातें.. मैं अच्छा.. सच्ची.. फिर क्या हुआ.. से आगे कभी नहीं गया। हालांकि, कुछ और कहने का मौका मिलता भी नहीं था और सच पूछो तो इसकी जरूरत भी नहीं थी। जब सामने से कोई कुछ कह रहा हो.. तो आदर्श स्थिति तो यही कहती है कि आप उसे सुनते रहें।

साल की वह दूसरी या तीसरी मुलाकात रहेगी होगी, जब मुझे देरी के लिए आपसे सुनना पड़ता था। माथे का बल और उभरी भौंह यह बताने के लिए काफी थी कि आज कुछ तगड़ा टॉनिक मिलने वाला है। भले ही मैं आने में अक्सर देरी कर देता था, लेकिन मैंने जानबूझकर ऐसा कभी नहीं किया। दरअसल क्या है ना.. पहले ये दिल्ली के ऑटो और जाम परेशान करते हैं, फिर रही सही कसर मेट्रो के 20 मिनट पूरी कर देते हैं। जब देरी का एहसास होता है तो लगता है समय बहुत‌ तेजी से भाग रहा है और स्टेशन है कि आने का नाम नहीं ले रहा है। कभी-कभी यलो लाइन में कोई तकनीकी दिक्कत आ जाए तो...घोर विपदा!

सुनो, वो वाला किस्सा याद है.. जिस दिन हम एनएसडी गए थे। उस दिन भी इंतजार किया था किसी ने.. बस किरदार बदल गया था। आपने पूरे 35 मिनट वेट करवाया और जब हम मिले तो आपने ताना देते हुए कहा- "पता चला..कैसा लगता है इंतज़ार कराना?"
यार एक तो लेट आ रही हो.. मैं कुछ और कहता इससे पहले आप बोल पड़ी ~ मुझे ऐसा क्यों लग रहा है आप बस अभी-अभी पहुंचे हो..?
नहीं, आधे घंटे से ज्यादा हो गया।
ये हो ही नहीं सकता.. अगर आप आए होते.. तो अब तक तो 50 कॉल कर दिए होते।
मुझे एक मौका मिला था.. कुछ सुनाने का... वो भी जाता रह गया।

खैर, मेट्रो के गेट नम्बर-6 से बाहर निकलने के बाद हम जनपथ लेन की और बढ़ रहे थे। उस दिन गहरे नीले रंग के प्रिंटेड सूट में थे आप। सिर के बाल बंधे थे। लंबे इतने कि खोल दो तो करधनी को छू लें। कुंडलों ने कानों पर अनावश्यक भार दे रखा था। कितनी बार कहा है... क्या ज़रूरत है इतने भारी इयररिंग्स पहनने की? लेकिन आप किसी की सुनते कहां हो?

लगभग 10 मिनट बाद हम रेस्तरां के सामने थे। साढ़े आठ बजने को होंगे, लेकिन तपिश कम होने का नाम नहीं ले रही थी। ऊपर से अंदर जाने के लिए 20 मिनट का इंतजार... और बड़ी आफ़त..। इससे बचने के लिए हम जनपथ लेन के दो-तीन चक्कर मार लेते थे। अंत‌ में भीड़ को चीर कर आप गार्ड के पास‌ जाकर पता करते ' भइया नम्बर कब आएगा?' मैं पास ही खड़ा इंतजार कर ही रहा था कि गार्ड ने आपका नाम लिया। इतने में आप पास आईं और हाथ पकड़ कर बोलीं- चलो नम्बर आ गया। गर्मी के मौसम में एसी की हवा और आपका साथ हो तो कहने ही क्या..! अंदर टेबल पर बड़ी तहज़ीब के साथ आपने अपना बैग दीवार के सहारे रखा और मैं मेन्यू खंगालने लगा।

-क्या खाओगे?
-जो आपको पसंद है मंगा लो।
मेन्यू के सारे पन्ने उलट कर देखने के बाद जब कुछ समझ नहीं आता तो उसे आपकी ओर बढ़ा देता।
- आप ही देखो ना...।
उस दिन आपने दो अलग-2 तरीके की डिश मंगाई। एक मसाला डोसा और शायद उत्तपम... साथ में बटर मिल्क भी।
और हमारी बातचीत का सिलसिला शुरू होता था 'और बताओ'‌ से‌, जो‌ ' अमूमन क्या बताऊं ' पर खत्म हो जाता।
फिर आप एक‌टक देखते और मैं नज़रें चुराता।
- ऐसे न देखो यार।
- तो कैसे देखूं?
- नॉर्मल रहो यार, मुझे बड़ा अजीब लगता है, जब कोई ऐसे देखता है।
हंसते हुए - इतना तो मैं भी नहीं शरमाती...

इस बीच हमारा ऑर्डर आ चुका था‌।
हां, एक बात‌ तो रह ही गई। उस दिन शाम को ना... मुझे भूख लग आई थी। घर से निकलने से पहले कुछ खाकर निकला था। डिनर तो बस बहाना था।
पेट भरा था तो क्या खाता? दो-चार कौर के बाद मैं तो बटर मिल्क निपटाने लगा...  इतने में भोजन की ओर इशारा करते हुए आप बोले- इसे कौन खत्म करेगा?
- आप करोगी।
आपकी जिद पर एक- दो कौर और खा गया। डोसा आपने निपटाया और सांभर मैंने। फिर आप दिनभर का हाल बताने लगी। मैं, अच्छा और हां के साथ तारतम्यता बनाते हुए आपकी तस्वीरें उतारने लगा। यह उन्हीं में से एक है।

नक़्क़ाशीदार कांच के गिलास में रखे बटर मिल्क को स्ट्रॉ से पीती... और तिरछी नज़रों से मुझे देखती राजुला... जिसके नाज़ुक हाथों की अंगुलियां दस्तरख़ान बिछने से पहले और बाद में अक्सर मेरी हथेलियों को टटोलती रहती थी। आप अक्सर कहा करती थी- देखो, हमारी ये वाली लाइनें एक-सी हैं। संदेह जताने पर झल्ला कर कहती- बताओ कैसे एक-सी‌ नहीं हैं? याद है...? कई बार आप वेटर के आने तक भी मेरी हथेली को अपनी हथेली में भींचे न जाने किन ख़यालों में गुम रहती थीं। साथ होने की खुशी आपके चेहरे पर साफ देखी जा सकती थी।

खैर, सुनो ना... मैंने कभी आपको सजते-संवरते नहीं देखा। हालांकि इसकी कोई खास ज़रूरत भी नहीं थी। हां, कभी-कभार आप लाइनर और लिपिस्टिक ज़रूर यूज करती थीं, लेकिन होंठ चबाने की आदत सब किए धर पर पानी फेर देती है । मना करो... तो कहती हो- यार भूल जाती हूं मैं.. लेकिन इस बार आप आई ब्रो बनाकर आई थी।
आखिर बात‌ क्या है?
अरे थोड़ा- सा सेट करवाया है। अब लड़कियों वाली कुछ आदतें तो चाहिए ही।

पता है एक आदत और भी है आपकी। आपके रहते में कभी कोई बिल पे नहीं कर पाया और अब इसकी संभावनाएं भी माइनस जीरो हो चुकी हैं।

रेस्तरां से निकलने के बाद सीपी सर्कल के दो-तीन चक्कर तो हमेशा तय ही रहते थे। इसी दरम्यान आप  अपनी कहानियां सुनाते- "मैं... मेरे दोस्त, मेरे भाई... हम वहां गए... यहां गए.. हमने ये किया... वो किया.. अब ऐसा करना है... वैसा करना... आज ऑफिस में ये हुआ...वो हुआ... और अनंत बातें...।

और‌ याद है...! साढ़े दस बजे के बाद आपके घर से फोन आने शुरू हो जाते थे। फिर आप कहते- अब चलें?
- नहीं, एक राउंड और...
-व्यंग्य-सा कसते हुए... लेट हो रहा है यार। इतना ही टाइम स्पेंड करना होता है तो टाइम पर क्यों नहीं आते हो?
- हां यार ये तो है... कहते हुए मैं बात को टालने कोशिश करता.. कोई और बात छेड़ देता... होते-करते हम इस बीच एक चक्कर और मार लेते।

फिर अन्त‌ में घर की ओर निकलने से पहले, वो बैंच याद है जिस पर बैठ आप हाथों में हाथ लेकर मेरे चेहरे को पढ़ने की कोशिश करते। हालांकि, अब तक न मैं आपसे दिल की कह पाया था और न आप...। फिर भी आप मेरी शर्ट के कॉलर को दुरस्त करते हुए मुस्कुराते। आँखें कई सवाल करतीं... कई मर्तबा लगता कि यह सही समय है, दिल की बयां कर देनी चाहिए... पर न जाने क्यों शब्द मौन धारण कर लेते, लेकिन हम दोनों के चेहरे कुछ न कह कर भी सब कुछ कह देते थे।

तंद्रा-सी तोड़ते हुए आप कहते- अब जाना है यार?
फिर हामी के सिवाय और कोई चारा भी नहीं रहता था। फिर तेज कदमों के साथ आप मेट्रो स्टेशन के गेट की ओर बढ़ते... अंत‌ में पलट कर देखने के बाद सीढ़ियाँ उतर जाते... और मैं उन लम्हों को संजोने वहीं बैठ जाता...।

बस इतना-सा है ये किस्सा।

आगे जारी है....✍️




~म्यार फस्क

(Note: जो "राजुला के नाम " का पहला हिस्सा नहीं पढ़ पाए हैं कृपया वे इस लिंक पर क्लिक करें। )


 

Sunday 3 July 2022

मेर पहाड़



जब भी मैं बैठता हूं पहाड़ और प्रकृति के नज़दीक
देखता हूं -
क्षितिज से गिरते झरने कल-कल छल-छल
सुनाई देती है हवाओं की सूंसाट
और नदी/गाड़ों की भूंभाट
धारे के पानी की तड़तड़ाट
हरे- भरे पहाड़ों पर डोलते चीड़- देवदार
हुक्का भर चिलम पीते पहाड़।

संकरे रास्तों से जांठी के सहारे चढ़ते बूबू
आमा के सिर डाल्ली में भरा सामान
खेत साते बाज्यू और मेड़ सजती ईजा
दन्यावे पर बैठ मिट्टी में सन चुके बच्चे
ठुल बाज्यू के खेत में लगा हुड़किया बोल
दूसरे छोर पर बीड़ी पीकर‌ सुस्ताते काकज्यू
डांडों पर घास काटती महिलाएं,
उनकी न्यौली पर संगत करते पहाड़।

'खान खा ली'.... धाद लगाती परुवा की ब्योली
हो.. होई कह प्रत्युत्तर देता प्रकाश
आंगन में फुदकती 'ग्यांव' और घात लगाकर बैठी 'शिरू'
नारिंग के पेड़ों पर चहचहाते 'सिटौल'
और अनंत में रेस लगाते 'शूवे'
चीड़ के पेड़ों पर बैठ एक- दूसरे को खुजाते 'गूनी'
नीचे उतरने का इंतज़ार करती 'सिल्की'
पार वाली धार से नीचे 'काकड़' को पछेटता 'शेरू'
उज्याड़ खाती गाय, ओवान करती काखी
और उसे लेने दौड़ता केदार
ऐसा सतरंगी है मेर पहाड़।



Friday 21 January 2022

राजुला के नाम... ✍

कुछ वर्ष पूर्व लिखी गई यह रचना आज किताबों को खंगाते हाथ लगी। क्या दिन थे...! उन दिनों लिखने की चाह ऐसी थी कि कुछ ही समय में कई पन्ने रंग जाते थे। कुछ जबरन लिखवाए जाते तो कुछ ऑन डिमांड तैयार किए जाते थे। दरअसल, यह रचना एक अनाम उपन्यास का हिस्सा है, लेकिन किन्हीं कारणों से वह उपन्यास अधूरा रह गया। सोचता हूं अब इस प्लेटफॉर्म के जरिए उसके अंश आप तक पहुंचाता चलूं। यह रचना उपन्यास का उत्तरार्ध है, जिसे शुरुआत में लेखन के प्रवाह को बनाए रखने के लिए उत्तम पुरुष में लिखा गया था। अब इसे ठीक वैसे ही पेश कर रहा हूं।

नायक- नायिका अलग- अलग राह पकड़ चुके हैं। हालांकि सुना तो ऐसा भी गया कि सहमति से दोनों ने यह रास्ता चुना... लेकिन किसी भी एंगल से लगता नहीं था कि यह विच्छेद म्यूचुअल‌ डिसीजन था, जिसकी खास तौर पर नायक चर्चा कर साथियों के बीच खुद को सामान्य दिखाने की असफल कोशिश करता था। 

इधर, दिन बीते... फिर हफ्ते और हर ढलते‌ दिन के साथ नायिका के वियोग में नायक बचैन हो जाता है। हर समय वह नायिका के साथ बिताए पलों को याद कर मन ही मन सही-गलत की पहेली में उलझा रहता। मन में चल रही ऊहापोह को "नायिका के नाम ख़त" लिख कर शांत करने का प्रयत्न करता। हालांकि वह जानता है कि दूरियां अब इतनी हैं कि ख़त लिखने का कोई औचित्य ही नहीं है, लेकिन यह दौर उसके 'देवानंदपन' का है। इसलिए मन को कैसे भी कर के समझाने का यत्न करता है। उम्मीद है इस सफ़र में आप भी नायक के‌ हम‌सफ़र बनेंगे और अन्त‌‌ में यथार्थ से रू-ब-रू होंगे ।



प्रिय
      राजुला

      मुझे ठीक से तो याद नहीं... लेकिन शायद 2013 के नवंबर या दिसंबर का वक़्त रहा होगा जब फेसबुक के ज़रिए हमारी बातों का सिलसिला शुरू हुआ था और पिछले दिनों ही आपका 'आखिरी ख़त' भी मिला। अच्छा लगा एक बार फिर फ्लैश बैक में जाने से पुरानी यादें ताजा हो गईं। एक बात तो है... अब आप और अच्छा लिखने लगी हैं। एक समय वह भी था जब आप मुझसे हिंदी पढ़ने की बात किया करते थे, जिसे मैं तो पढ़ा नहीं पाया... पर आप मुझे ज़िन्दगी जीने का सलीका सिखा गईं। आपने बताया कि कैसे छोटी- छोटी बातों से दूसरों को खुशियाँ दी जा सकती हैं। 

पता है... आपका चेहरा‌‌ ना... सबसे जुदा है... जो देखे देखता रह जाए... बड़ी- बड़ी आंखें, दमकता ललाट, हमेशा गुलाबी रहने वाले होंठ और थोड़ी चपटी नाक.... जो आपको पहाड़ी टच देती है। सुनो तो... गौर से देखने पर लगता है अब वह थोड़ी- सी टेढ़ी भी हो चली है। खैर... जो भी हो मुझे बहुत पसंद है। इन बीते सालों में एक दौर ऐसा भी आया कि आप मेरी सुबह- शाम बन गए थे। आपको तो पता ही है, दिन की शुरुआत से रात के आख़िरी प्रहर तक शायद ही ऐसा कोई पल रहा हो जब हम एक- दूसरे से दूर रहे हों। 

आप में कुछ तो ऐसा था जो सब में नहीं होता, तभी तो जब कहने को कुछ भी नहीं होता था उसके बावजूद भी 'हम्म.... हां...', 'और बताओ' में हमारे कई घंटे निकल जाते और पता भी नहीं चलता था। आधी रात से सुबह तक की चैटिंग नोकिया 1600 की मैमोरी दो-चार बार फुल करने के लिए काफी थी। और हां... भौतिक रूप से मिलने का एक मात्र संस्थान- होटल सर्वणा को कैसे भूल सकते हैं, जिसके वेटर हमारी पसंद का भोजन खुद ही ले आते थे। यह एक ऐसी जगह थी जहां आप खाना खाने की बजाय मुझे एक टक देेखते रहते... मैं कहता- राजुुुला‌ बस भी करो सब यहीं देख रहे हैं।

याद है...! जब मैं शहर के पल्ले वाले मोड़ तक आपको छोड़ने आया था। हां... उसी दिन जब सांझ हो आई थी। बस‌ से उतरने के बाद हम कुछ दूर तक‌ साथ चले और अंधेरा छाने लगा था। स्ट्रीट लाइट के उजाले‌ में आपका चेहरा दमक रहा था। साथ होने की ख़ुशी उसमें साफ झलक रही थी। घर पास आने पर आप कहते‌ - अब लौट जाओ मैं चली जाऊंगी, बस चार कदम और चलना है... लेकिन ज़िद थी घर तक छोड़कर आना है। अंत में जब आपको छोड़ने की बारी आती थी तो चेहरा सारा सच बयां कर देता था। मन कहता - काश ये शाम कुछ देर ठहर जाए... मैं थोड़ा और वक़्त अपनी राजुला के साथ बिता सकूं। लेकिन कई मामलों में शाम भी निष्ठुर हो जाती है। वह मेरी क्या, किसी की भी नहीं सुनती। ऐसे मेें थोड़ी-सी ज़िद बहुत काम आती थी और अंत में बिछुड़न...

सच‌ कहूं तो तब से लेकर आज तक मैं किसी से कभी कोई ज़िद नहीं कर पाया, क्योंकि ये आप थे जो कहने से पहले मेरी हर बात समझ जाते। मेरे लिए आप एक‌ इंसान थे- 

जो हर संभव मेरे साथ रहता है
मेरी हर नादान चाह पूरी करता है
जो मुझमें ही रहता, मेरा ही गीत गाता है
मेरी वेदनाओं की संवेदना, मेरे रूह का आफ़ताब... 
मन करता है घंटों सामने बैठा रहूं और आपको सुनता रहूं। 

याद है... एक बार जब हम बस से सफ़र कर रहे थे तो मेरे शहर छोड़ने की बात‌‌ सुनकर आपकी आंखें‌ डबडबा गई थीं और गला रुध गया था।‌ कुछ कहना चाहते थे आप, पर केवल मेरा नाम ही ले पाए। लंबी सांस लेकर आपने ख़ुद को सामान्य दिखाने की कोशिश की। मैं आपके मन में चल रही ऊहापोह को‌ समझ तो गया था पर अफसोस...! उसे जाहिर नहीं कर पाया। 

मुझे ना आपका लड़ना-झगड़ना यहां तक कि कई बातों को लेकर ताना देना भी पसंद है। ऐसी कोई बात नहीं जो इस चाह को ज़रा-सा भी कम कर दे। हालांकि अब आप साथ नहीं हो.. लेकिन लगता है दूर रहकर भी पास हो।
एक बात तो तय है आपके दूर हो जाने के बाद अब मेरे ख़्वाब... ख़्वाब ही रहेंगे। सुबह से लेकर शाम तक और शाम से लेकर सुबह तक आपसे बातें करने का ख़्वाब ।
जीभर के देखने, तुम्हारे बालों से खेलने का ख़्वाब ।
हाथों में हाथ लेकर उस‌ पल्ले वाले छोर तक जाने का ख़्वाब। शायद यही हमारा प्रारब्ध था।

इस सब के बावजूद आज भी मेरे लिए आप वही हो-

जो मुझे मुझसे भी ज्यादा जानता है।
मेरे हर सवाल का जवाब, मेरे पार्थिव का प्राण
तुम बिन मैं कुछ भी नहीं केवल खूंट-ठूंठ के। 

आप थे तो बागों में बहार थी, सावन की महकार के साथ बसंत की फुहार भी... पर अब ये दौर पतझड़ का है और यह जीवन का एक अर्ध सत्य...। 

सदा तुम्हारा




                      ©Bhaskar Sharma 

                                 ©म्यार फस्क 


Friday 9 November 2018

उत्तराखंड से सीधी बात


स्थापना दिवस की बधाई उत्तराखण्ड.
सुनो तो सही, बीते सालों में जो हुआ सो हुआ. कई बार भूत को भूल जाना श्रेयस्कर होता है. आप भी कोशिश करो... भूल जाओगे. मुझे पता है आप दांत भींच रहे हैं, मुठ्ठी तान रहे हैं पर सच कहूं तो हमारे माननीय अब सचेत हो गए हैं। अब हर गांव में सीसी मार्ग से लेकर पक्की वाली सड़क बना दी गई है बल, बिल्कुल पक्की वाली, जिसका डामर सदी-सदी तक पीछा नहीं छोड़ेगा, इतनी पक्की. स्कूलों में बच्चों की तो ठाट करवा दी है. एक बखत का दलिया और दाल-भात उन्हें तंदुरुस्त, ह्रस्त-पुष्ट बना रहा है. अध्यापकों की तो फौज खड़ी कर दी है. मजाल है कोई बच्चा पढ़ने-लिखने से छूट जाए. सुनने में तो आया है घर से खींच कर बच्चों को स्कूल ले जा रहे हैं बल... गज़ब का बदलाव आ गया है हो.
जल- ज़मीन बेच खाने वालों की तो खैर नहीं। ऐसी धाराएं लगा दी हैं बल 'माफिया नाम' इतिहास की बात हो गई है और नौजवानों को तो १२ पास होते ही जबरदस्त रोजगार का ऑफर मिल रहा है. इतनी मोटी रकम बतौर वेतन मिल रही है बल कट्टे कम पड़ जा रहे हैं.
भ्रष्टाचार..! भ्रष्टाचार तो हो ही नहीं दे रहा है बल, ऊपर से नीचे तक सब सुधर गए हैं. घोषणा पत्रों का अक्षरश: पालन हो रहा है और मरीजों का तो 108 में इलाज हो रहा है. कहीं जाने की जरूरत ही नहीं ठैरी. ठाट हो गए हैं सबके.
पलायन...! ऐसी व्यवस्था सरकार ने कर दी है कि पलायन वालों का तो फंग्यो पकड़ के उनके घर पहुंचा दिया जा रहा है. खेतों में गुनी, बांदर, सौल, सुअर आ ही नहीं दे रहे बल. ऐसी बेहिसाब पैदावार हो रही है कि खाने वाले कम पड़ जा रहे हैं. जंगल ऐसे भभक गए हैं बल उनमें घुसना मलतब जान से हाथ धोने जैसा हो जा रहा है. अरे क्या बताऊं विस्फोटक बदलाव आ गया है हो.
कुल मिलाकर राम राज आ गया है बल और क्या चाहिये आपको. बाकी द्य-द्याप्त देख लेंगे. आप बेकार में रुणि रहे हैं. इसीलिए हे..! उत्तराखण्ड अब खुशियां मनाओ, फगारि बुलाओ मंगल गीत गाओ.. एक बार फिर से जन्मदिन की अनंत शुभकामनाएं.
आपका अपना 

Wednesday 10 January 2018

गुरू... हमें ना सताइए

प्रतीकात्मक तस्वीर
मारिए, मारिए कस के मारिए
हर स्टाइल से मारिए
ऊपर-नीचे, दाएं-बायें
धुआं उड़ाइये, छल्ले बनाइये
सिगरेट का बंडल मिनटों में फूंक डालिए
पर, गुरू हमें ना सताइए

पीजिए-पीजिए, रजनी स्टाइल में पीजिए
अरे भई, बीड़ी फूंकिये, सिगरेट फूंकिये
हो सके तो गांजा भर के फूंकिये
अपने केबिन को शौक से गैस चेम्बर बनाइये
फेफड़ों में खूब टार जमा करिये
पर, गुरू हमें ना सताइए

ये जो आप सिगरेट सुलगाने के साथ
केबिन का एडजस्ट फैन ऑन कर देते हैं ना
बाय गॉड, तंत्रिका तंत्र बिगड़ जाता है
नाक में धुंआ घुसने के साथ ही
ब्रह्मांड हिल जाता है
करिए, सिगरेट के साथ हीं-हीं, ठा-ठा खूब करिए
पर, गुरू हमें ना सताइए

आप मौज से पीजिये और
दीजिये, दूसरों को दीजिए
सिर दर्द, सीना दर्द दीजिये
चाहो तो केजरी खांसी लगवा दीजिये
हो सके तो  लोगों की सांसें बंद करवा दीजिए
जो हों आपके इस शौक से खुश
सबको बेचैन करिये, परेशान करिये
पर, गुरू हमें ना सताइए

वाह गुरू... बहुत खूब
आप दफ्तर में पीजिए और धुंआ हमारे मुंह में छोड़िए
अट्टहास कर फूंकिये और शर्म हमसे कराइये
मानो तो एक दरख़्वास्त है
सिगरेट छोड़िए, जियो और जीने दो की राह अपनाइए
नहीं मानते, भाड़ में जाइए
पर, गुरू हमें ना सताइए 

Wednesday 5 July 2017

पहली किश्त, बचपन की

पूष की एक शाम घाटी में एक छोटे-से टीले पर बैठे-बैठे मैं क्षितिज की ओर टकटकी लगाए देख रहा था। दूर पहाड़ पर चीड़ के पेड़ निःशब्द खड़े थे, सूर्य भी अपनी किरणें समेटने को था। तभी चिड़ियों का झुंड़ उड़ता हुआ आया और मेरी आंखों के सामने से ओझल हो गया। हवा की शीतलता गहराने लगी थी। हालांकि मैं दो-तीन ऊनी कपड़े पहने था फिर भी हवा उन्हें बेधकर बदन को ठिठुरा रही थी। गधेरे के पानी को ढलते सूरज की किरणें चमका रही थी, लग रहा था मानो किसी ने मुंह पर दर्पण लगा दिया हो। हवा तेज हो चली थी। गधेर के पास खड़े उतीश और मेव के पेड़ों की डालियां हिलने से बहता पानी भी झिलमिला-सा रहा था, एकाएक चमकता और ढक जाता। पीठ पीछे चीड़ के पेड़ों की पत्तियों पर हवा की सरसराहट और तेज हो गई। नीचे आम के पेड़ों के झुरमटों के बीच पक्षियों की चहचहाहट बता रही थी कि अब घर लौट चलो शाम अपने अंतिम पड़ाव पर है। बांयी ओर की धार में अचानक धूल का बवंडर आसमान की ओर उड़ता दिखाई दिया। धूल कुछ छटीं तो देखा गायों का झुंड़ दौड़ता हुआ नीचे की ओर आ रहा है, जो कुछ ही पलों में काफल के पेड़ों की ओट में गुम-सा हो गया। घाम अब चढ़ाई चढ़ते हुए दूर पहुंच चुका था। इतनी देर में आंखों के सामने से कुन्स्यावों का जोड़ा सरपट पास के झूड़ों में ओझल हो गया।उधर, पल्ले छोर पर पहाड़ों के ऊपर घने बादल अपना डेरा जमाए थे। तभी तेज हवा का झौंका सामने वाले पहाड़ से जा टकराया और इसी के साथ सूरज भी अस्त हो गया।

ज्यों ही सूर्य की किरणें शुभरात्रि कह गईं ठंड का अहसास और बढ़ा गईं। कुछ देर बाद नाक से पानी भी आने लगा। पोछने को हाथ बढ़ाया तो मालूम पड़ा कि नाक की डंठल भी सुन्न-सी हो गई है। सुना है कल रात नैनीताल की ओर बर्फ पड़ी थी। दो-चार दिनों में यहां भी पड़ने की उम्मीद है। अगास की ओर देखा तो चंद्रमा भी अपने साथ घेर लिए हुए आगे बढ़ रहा था। उधर बादल अपनी चकाचौंध दिखाते हुए अग्रसर हो रहे थे। ठीक ही किया जो बीती शाम लकड़ियां बंटोर ली, नहीं तो खाने पकाने के लिए मशक्कत करनी पड़ती। भीगी लकड़ियों से खाना बनाते ईजा की आंखें धुएं से नम हो जाती ना। खैर, अब अलाव धुंआ नहीं करेंगे।

अंधकार अपनी बिसात बिछा रहा था। मैं भी घर की ओर चल दिया। रूंड़ में आग जलाकर रात के भोजन की तैयारी करने लगा। इस बीच कमरा भी अच्छी तरह गर्म हो गया था।आसमानी बिजली आंगन के पाथरों पर पड़े पाले को चमका रही थी। सामने के जंगल में एक मैना बहुत देर से क्रंदन कर रही थी। लगता है उसका घरौंदा किसी बानर ने नष्ट कर दिया है। हवा थमने का नाम नहीं ले रही थी, जिसके कारण संतरे के पेड़ों पर बैठे पंछी लगातार चहचहा रहे थे। रात का पहला प्रहर बीतने को था। अभी तक ईजा और बाज्यू काम से नहीं लौटे थे। द्वार उघाड़कर देखा तो बाहर घुप्प अंधेरा था। टॉर्च लेकर उन्हें खोजने निकला तो सर्द हवाओं ने फिर पूरा बदन कंपा दिया। सारी गर्माहट छू हो गई। अभी सौ एक मीटर ही चला था, देखा सामने से कोई खतरनाक जीव मेरी ओर बढ़े चले आ रहा है। मैं थोड़ा सहम गया। कमबख्त टॉर्च की रोशनी भी वहां तक नहीं पहुंच रही थी। अचानक शेरू पूंछ हिलाते हुए सामने आ गया और उछल कूद शुरू कर दी। पुचकारने पर शांत हो गया। ईजा और बाज्यू भी अब पास ही पहुंच गए थे। ईजा के सिर पर रखा घास का गठ्ठर स्याह रात में किसी जंगली जानवर से कम नहीं लग रहा था। पिछले ही महीने तो बाग और शेरू की भिड़त हुई थी उस पल्ले वाले धार के खेत में, भाग अच्छे थे बच गया। खैर, अब जान पर जान आ गई थी। बाज्यू साथ हैं तो डरने की क्या बात है। फिर सब साथ हो लिए और जानवरों को चारा देन के बाद हम घर आ गए और मूसलाधार बारिश शुरू हो गई। ईजा ने पिनालू की सब्जी और मडुवे की रोटी पात दी साथ में दही का छसिया, वाह क्या लज़ीज खाना। ईजा के हाथों बना....

अब, वह सब बहुत याद आता है। मैं आज वहां नहीं हूं पर मन हर रोज उन पहाड़ों की सैर जरूर करता है। इस शहर में आए दस साल होने को हैं। यहां न दिन निकले का पता पड़ता है, न ही शाम ढलने का। दिनभर सड़कों पर गाड़ियों की भूंभाट और कान फोड़ू शोर-शराबा। जुलाई शुरू हो गया है। उमस भरी इन गर्मी के दिनों को काटना मेरे लिए अब भी बहुत दुष्कर है। चाहे घर के भीतर रहो या बाहर पसीने से लथपथ ही रहोगे। लेकिन अब कुछ आदत हो गई है यूं ही रहने की। कुछ परेशान भी होता हूं, पर मेरे पास अभी कोई दूसरा विकल्प नहीं है। तलाश जारी है... और इस उधेड़बुन में जब भी अकेला होता हूं तो बचपन आंखों में तैरने लगता है। जिसकी यह पहली किश्त थी और आज सार्वजनिक हो गई...।
   



फसकः भास्कर शर्मा



Tuesday 29 November 2016

शरत की ‘खोवी’


शरद ऋतु अपने अंतिम पड़ाव पर है, तो जाहिर-सी बात है बागों में क्या, कहीं भी बहार देखने को नहीं मिलेगी। क्योंकि वर्षा काल में जमीन पर कई जीवाणु पनप आते हैं, जिन्हें खत्म करने के लिए सूर्य की किरणें ऊष्म और हवाओं का वेग बढ़ जाता है। बाकी जो बच जाता है धरती में समा जाता है। फिर भी एक जगह है जहां बहार है। वह है ‘कीचड़’। जहां कमल दल खिले हैं और भौंरे गुंजन कर रहे हैं, पर स्वच्छता अभियान के इस दौर में सफाई पंसद लोग खुद को भला क्यों कीचड़ से सना पसंद करेंगे?

पहाड़ों में भी मौसम खुश्क हो चला है। हर्यमान रहने वाले पौड़ सूनसान- विरान से हो गए हैं। बीती दिवाली गांव जाने का मौका मिला। ‘शरद’ का सबसे ज्यादा असर वहां नजर आया। दिनभर का तपा देने वाला घाम और रात में सर्द हवाओं की रजाई के कोनों से आवाजाही, मतलब अगली सुबह ‘नाकबंदी’, जिसे ठीक करने के लिए गर्म पानी और कुछ देर में ‘कडक़ चाय’ की सख्त दरकार। अगर यह व्यवस्थाएं हो जाएं तो ‘सोने में सुहागा’। 

इस मर्तबे घर चार माह बाद ही पहुंच गया था, अपने प्रोफेशन में ऐसे मौके कम ही मिलते हैं। पिछली बार गांव वालों से मिल नहीं पाया था। इस बार कसर पूरी की, लेकिन यहां भांग के पौधे ‘शरत’ को लगता है जाने नहीं देंगे। इस दिनों यहां भांग (चरस) के पत्तों की मंड़ाई का काम जोरों पर है। चरस के मायनों में यह बात अच्छी है कि मेरी उम्र के लोग अब गांव में नहीं हैं। अगर होते तो ज्यादातर नशे में चूर ही होते। रोजगार के लिए लोग शहरों में प्रवास कर गए हैं या पलायन कर गए हैं। अब क्या कीजिएगा सरकार छुट्टी पर चल रही है। पता नहीं कब लौटे की। नाकारा-सी हो गई है। अब सवाल उठता है कि क्या हम भी ‘नाकारा’ हो जाएं? यह बात हर किसी के सामने प्रश्न चिह्न है। आखिरकार लोग नशे के खेती क्यों करते हैं, यह जानते हुए यह ‘दम’, दम निकाल देती है। पहाड़ों में चरस को आम भाषा में दम, अत्तर और भोले की बूटी कहते हैं। 

पूछने पर एक व्यक्ति ने बताया कि गांव में लोगों के पास रोजगार नहीं है। सरकारी काम बहरहाल बंद हैं। प्रधान कहते हैं कि हमने प्रस्ताव भेजा है, देखो कब तक पास होता है। जो छोटा- मोटा काम आता है, कुछ तो लोग डकार जाते हैं और कुछ की सिद्धि कर दी जाती है। भुला, पहाड़ों में पानी तो ठहरता नहीं, बारिश का भी इन सालों कोई भरोसा नहीं। हुई तो ठीक, ना हुई तो रोटी का संकट। जिनकी आर्थिक स्थिति थोड़ी ठीक- सी है वह बिस्तर समेट कर गांव से निकल गए हैं, जो बचे हैं पेट तो उनका भी है। दो चार पैसे कमाएंगे नहीं तो इस कलयुग में खाएंगे क्या? सच बताऊं तो कुछ न सही, पर भोले की बूटी 100-50 तो दिला ही देती है। सीजनी है, पर कुछ राहत जरूर है, लेकिन बच्चों के नशे की लत पर वो चुप्पी साध लेते हैं। सरकार ने अत्तर के खिलाफ कड़े कानून तो बनाए हैं, पर यहां की स्थिति देखकर असर कुछ नजर नहीं आता।

यह अचरज वाली बात यह है कि मुझे गांव में कोई भी नशे में चूर नहीं आया। मतलब साफ है कि अत्तर गांव से बाहर जाती है। हालांकि वहां पीने वालों का कमी नहीं है। अब सबसे बड़ी बात, इस काम में महिलाओं की सहभागिता भी कम नजर नहीं आती। भांग के पौधों को मांड़ते हुए एक आमा कहती हैं कि हमारे यहां भागं की चटनी का कोई सानी नहीं है। अभी पूस (पौष) लगने वाला है। साग-सब्जियां जब नहीं होती तो मड़ुवे की रोटी के साथ भांग का नमक ही काम आता है और इसके औषधीय गुणों के क्या कहने इसके पत्तों का रस निचोड़ कर घाव में डाल दो तो मजाल है कि भरे ना।  

उधर, घाम भी धारों में पहुंच गया था। घर लौटते समय गांव की ही एक काकी ने पूछा  ‘म्यर राकेश कै ना दिख्याये काईं’? (क्या तुमने मेरे राकेश को नहीं देखा?) मेरी ना पर उन्होंने कहा ‘खोवी चा रे हुनैल’। (खोवी देख रहा होगा) पहले तो मेरी समझ नहीं आया कि आखिर ‘खोवी’ है क्या? पूछने पर हंसते हुए उन्होंने बताया कि ताश के पत्तों का खेल जहां होता है उसे ‘खोवी’ कहते हैं। 

दरअसल, 15 अक्टूबर तक पहाड़ों में सबके खेतों का काम निपट जाता है और अगले 1 माह तक लोग इधर-उधर ‘खोवियों’ में बैठकर या तो टाइम पास करते हैं या पिछले छह माह की कमाई गंवाते हैं। अगले दिन वापसी थी तो गाड़ी में किसी ने बताया कि पाटी के गिरीश ने खोवी में सब कुछ हाने के बाद जिंदगी से भी हार मान ली। जहर पीते हुए उसे एक पल भी नहीं सूझा कि उसके बाद उसकी पत्नी और दो बच्चों के भविष्य का क्या होगा?
इसीलिए बागों में बहार नहीं है और ‘शरद’ खुश्क।
सरकार हृष्ट-पुष्ट है, प्रशासन नाकारा और कामचोर।
नेताओं के मन में है खोट, दिखता उन्हें केवल वोट।
रोजी-रोटी के लिए लगी है लंबी कतार।
यहां भी है नाकाबंदी।
यदि नहीं है आपके पास ‘काले-सफेद’ का तजुर्बा 
तो सब बेकार।
है तो बस, 'बागों' में बहार...। 


फसक ः भास्कर शर्मा