राजुला के नाम भाग -2
शुक्रवार का दिन था। सुबह लगभग 10 बजे नींद खुली.. लेकिन अलसाहट अब भी बाकी थी। किस्मत भली थी आज वीक ऑफ था। कुछ देर और सोने के बाद लगा अब नींद पूरी हो चुकी है... उठ जाना चाहिए। लेटे हुए ही मोबाइल फोन खोजने के लिए हाथों से बिस्तर टटोला... तो पाया वह सिरहाने के एक कोने पर पड़ा है। ऑन किया... तो देखता हूं... आपकी छह मिस्डकॉल... और तीन मैसेज, सुबह पांच बजे के आए हुए हैं। उससे ठीक एक घंटा पहले ही तो मैं फोन साइलेंट कर सोया था। रिप्लाई करने के बाद पता नहीं क्यों... अंगुलियां फोन की गैलरी की ओर बढ़ गईं। तभी नज़र एक फोटो पर आकर टिक गई। ठीक-ठीक तो याद नहीं पर शायद 2015 की बात रही होगी। मार्च खत्म होने को था और गर्मियां उरूज पर जाने को बेताब.... इत्फ़ाकन उस दिन भी ऑफिस की छुट्टी थी। फोन पर आपसे बात हुई... तो सीपी में डिनर को प्रोग्राम तय हो गया।
हर बार की तरह मैं फिर से लेट था। इस बार भी पूरी भूमिका बनाकर तयशुदा जगह (राजीव चौक मेट्रो स्टेशन) पहुंचा था कि मामला संभालना कैसे है, लेकिन उसका बहुत ज्यादा फ़ायदा होता नहीं था। आपको जो कहना-सुनाना होता, आप एक ही सांस में कह डालते थे। मुझे तल्ख लहज़े वाले आपके चेहरे के भाव अब भी ठीक से याद हैं। आप कहते - "हमेशा लेट...! कभी टाइम पर तो आना ही नहीं है। आधे- आधे घंटे वेट करवाते हो.. अगली बार अब मिलने के लिए बोलना मत...। " और ना जाने क्या-क्या... उसके बाद भी जो कुछ छूट जाता...उसकी कसर आंखें पूरी कर देती थी। मैं हमेशा की तरह कहता- "यार अगली बार पक्का टाइम पर आऊंगा"... आप डपट कर कहते-" रहने दो... कभी नहीं सुधरोगे आप... अब चलो।" दो चार कदम चलने के बाद आप कुछ ऐसे पेश आते जैसे कुछ हुआ ही न हो.. " अच्छा सुनो ना.. यार जब मैं आ रही थी ना.. पता है क्या हुआ.. और फिर कभी खत्म न होने वाली बातें.. मैं अच्छा.. सच्ची.. फिर क्या हुआ.. से आगे कभी नहीं गया। हालांकि, कुछ और कहने का मौका मिलता भी नहीं था और सच पूछो तो इसकी जरूरत भी नहीं थी। जब सामने से कोई कुछ कह रहा हो.. तो आदर्श स्थिति तो यही कहती है कि आप उसे सुनते रहें।
नहीं, आधे घंटे से ज्यादा हो गया।
ये हो ही नहीं सकता.. अगर आप आए होते.. तो अब तक तो 50 कॉल कर दिए होते।
मुझे एक मौका मिला था.. कुछ सुनाने का... वो भी जाता रह गया।
खैर, मेट्रो के गेट नम्बर-6 से बाहर निकलने के बाद हम जनपथ लेन की और बढ़ रहे थे। उस दिन गहरे नीले रंग के प्रिंटेड सूट में थे आप। सिर के बाल बंधे थे। लंबे इतने कि खोल दो तो करधनी को छू लें। कुंडलों ने कानों पर अनावश्यक भार दे रखा था। कितनी बार कहा है... क्या ज़रूरत है इतने भारी इयररिंग्स पहनने की? लेकिन आप किसी की सुनते कहां हो?
लगभग 10 मिनट बाद हम रेस्तरां के सामने थे। साढ़े आठ बजने को होंगे, लेकिन तपिश कम होने का नाम नहीं ले रही थी। ऊपर से अंदर जाने के लिए 20 मिनट का इंतजार... और बड़ी आफ़त..। इससे बचने के लिए हम जनपथ लेन के दो-तीन चक्कर मार लेते थे। अंत में भीड़ को चीर कर आप गार्ड के पास जाकर पता करते ' भइया नम्बर कब आएगा?' मैं पास ही खड़ा इंतजार कर ही रहा था कि गार्ड ने आपका नाम लिया। इतने में आप पास आईं और हाथ पकड़ कर बोलीं- चलो नम्बर आ गया। गर्मी के मौसम में एसी की हवा और आपका साथ हो तो कहने ही क्या..! अंदर टेबल पर बड़ी तहज़ीब के साथ आपने अपना बैग दीवार के सहारे रखा और मैं मेन्यू खंगालने लगा।
-क्या खाओगे?
-जो आपको पसंद है मंगा लो।
मेन्यू के सारे पन्ने उलट कर देखने के बाद जब कुछ समझ नहीं आता तो उसे आपकी ओर बढ़ा देता।
- आप ही देखो ना...।
उस दिन आपने दो अलग-2 तरीके की डिश मंगाई। एक मसाला डोसा और शायद उत्तपम... साथ में बटर मिल्क भी।
और हमारी बातचीत का सिलसिला शुरू होता था 'और बताओ' से, जो ' अमूमन क्या बताऊं ' पर खत्म हो जाता।
फिर आप एकटक देखते और मैं नज़रें चुराता।
- ऐसे न देखो यार।
- तो कैसे देखूं?
- नॉर्मल रहो यार, मुझे बड़ा अजीब लगता है, जब कोई ऐसे देखता है।
हंसते हुए - इतना तो मैं भी नहीं शरमाती...
इस बीच हमारा ऑर्डर आ चुका था।
हां, एक बात तो रह ही गई। उस दिन शाम को ना... मुझे भूख लग आई थी। घर से निकलने से पहले कुछ खाकर निकला था। डिनर तो बस बहाना था।
पेट भरा था तो क्या खाता? दो-चार कौर के बाद मैं तो बटर मिल्क निपटाने लगा... इतने में भोजन की ओर इशारा करते हुए आप बोले- इसे कौन खत्म करेगा?
- आप करोगी।
आपकी जिद पर एक- दो कौर और खा गया। डोसा आपने निपटाया और सांभर मैंने। फिर आप दिनभर का हाल बताने लगी। मैं, अच्छा और हां के साथ तारतम्यता बनाते हुए आपकी तस्वीरें उतारने लगा। यह उन्हीं में से एक है।
नक़्क़ाशीदार कांच के गिलास में रखे बटर मिल्क को स्ट्रॉ से पीती... और तिरछी नज़रों से मुझे देखती राजुला... जिसके नाज़ुक हाथों की अंगुलियां दस्तरख़ान बिछने से पहले और बाद में अक्सर मेरी हथेलियों को टटोलती रहती थी। आप अक्सर कहा करती थी- देखो, हमारी ये वाली लाइनें एक-सी हैं। संदेह जताने पर झल्ला कर कहती- बताओ कैसे एक-सी नहीं हैं? याद है...? कई बार आप वेटर के आने तक भी मेरी हथेली को अपनी हथेली में भींचे न जाने किन ख़यालों में गुम रहती थीं। साथ होने की खुशी आपके चेहरे पर साफ देखी जा सकती थी।
खैर, सुनो ना... मैंने कभी आपको सजते-संवरते नहीं देखा। हालांकि इसकी कोई खास ज़रूरत भी नहीं थी। हां, कभी-कभार आप लाइनर और लिपिस्टिक ज़रूर यूज करती थीं, लेकिन होंठ चबाने की आदत सब किए धर पर पानी फेर देती है । मना करो... तो कहती हो- यार भूल जाती हूं मैं.. लेकिन इस बार आप आई ब्रो बनाकर आई थी।
आखिर बात क्या है?
अरे थोड़ा- सा सेट करवाया है। अब लड़कियों वाली कुछ आदतें तो चाहिए ही।
पता है एक आदत और भी है आपकी। आपके रहते में कभी कोई बिल पे नहीं कर पाया और अब इसकी संभावनाएं भी माइनस जीरो हो चुकी हैं।
रेस्तरां से निकलने के बाद सीपी सर्कल के दो-तीन चक्कर तो हमेशा तय ही रहते थे। इसी दरम्यान आप अपनी कहानियां सुनाते- "मैं... मेरे दोस्त, मेरे भाई... हम वहां गए... यहां गए.. हमने ये किया... वो किया.. अब ऐसा करना है... वैसा करना... आज ऑफिस में ये हुआ...वो हुआ... और अनंत बातें...।
और याद है...! साढ़े दस बजे के बाद आपके घर से फोन आने शुरू हो जाते थे। फिर आप कहते- अब चलें?
- नहीं, एक राउंड और...
-व्यंग्य-सा कसते हुए... लेट हो रहा है यार। इतना ही टाइम स्पेंड करना होता है तो टाइम पर क्यों नहीं आते हो?
- हां यार ये तो है... कहते हुए मैं बात को टालने कोशिश करता.. कोई और बात छेड़ देता... होते-करते हम इस बीच एक चक्कर और मार लेते।
फिर अन्त में घर की ओर निकलने से पहले, वो बैंच याद है जिस पर बैठ आप हाथों में हाथ लेकर मेरे चेहरे को पढ़ने की कोशिश करते। हालांकि, अब तक न मैं आपसे दिल की कह पाया था और न आप...। फिर भी आप मेरी शर्ट के कॉलर को दुरस्त करते हुए मुस्कुराते। आँखें कई सवाल करतीं... कई मर्तबा लगता कि यह सही समय है, दिल की बयां कर देनी चाहिए... पर न जाने क्यों शब्द मौन धारण कर लेते, लेकिन हम दोनों के चेहरे कुछ न कह कर भी सब कुछ कह देते थे।
तंद्रा-सी तोड़ते हुए आप कहते- अब जाना है यार?
फिर हामी के सिवाय और कोई चारा भी नहीं रहता था। फिर तेज कदमों के साथ आप मेट्रो स्टेशन के गेट की ओर बढ़ते... अंत में पलट कर देखने के बाद सीढ़ियाँ उतर जाते... और मैं उन लम्हों को संजोने वहीं बैठ जाता...।
बस इतना-सा है ये किस्सा।